।। अथ अर्गलास्तोत्रम् ।।
ॐ नमश्चण्डिकायै
मार्कण्डेय उवाच ।
ॐ जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूता पहारिणि ।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते ॥ १ ॥
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥ २ ॥
मधुकैटभ विध्वंसि विधातृवरदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ३ ॥
महिषासुर निर्नाशि भक्तानां सुखदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ४ ॥
धूम्र नेत्र वधे देवि धर्म कामार्थ दायिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ५ ॥
रक्त बीज वधे देवि चण्ड मुण्ड विनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ६ ॥
निशुम्भ शुम्भ निर्नाशि त्रैलोक्यशुभदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ७ ॥
वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्व सौभाग्य दायिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ८ ॥
अचिन्त्य रूप चरिते सर्व शत्रु विनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ९ ॥
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चापर्णे दुरितापहे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १० ॥
स्तुवद्भयो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ११ ॥
चण्डिके सततं युद्धे जयन्ति पापनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १२ ॥
देहि सौभाग्य मारोग्यं देहि देवि परं सुखम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १३ ॥
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि विपुलां श्रियम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १४ ॥
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १५ ॥
सुरासुर शिरोरत्न निघृष्ट चरणेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १६ ॥
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरु ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १७ ॥
देवि प्रचण्ड दोर्दण्ड दैत्य दर्पनिषूदिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १८ ॥
प्रचण्ड दैत्य दर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १९ ॥
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्र संस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २० ॥
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २१ ॥
हिमाचल सुतानाथ संस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २२ ॥
इन्द्राणीपति सद्भाव पूजिते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २३ ॥
देवि भक्तजनोद्दाम दत्तानन्दो दयेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २४ ॥
भार्या मनोरमां देहि मनोवृत्तानु सारिणीम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २५ ॥
तारिणि दुर्गसंसार सागरस्या चलोद्भवे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २६ ॥
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः ।
सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभम् ॥ २७ ॥
।। इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रं समाप्तम् ।।